फिर से
न अब से सिर उठा पाये,
कोई मन की कलह फिर से।
ये साँसे फिर महक जायें,
चलो कर ले सुलह फिर से।।
न जाने कब से इन आँखो ने,
सूरज को नहीँ देखा।
मिटा कर हर अंधेरे को,
चलो कर ले सुबह फिर से।।
( फिर से-1)
-विजय वर्मा
25-03-2016
कोई मन की कलह फिर से।
ये साँसे फिर महक जायें,
चलो कर ले सुलह फिर से।।
न जाने कब से इन आँखो ने,
सूरज को नहीँ देखा।
मिटा कर हर अंधेरे को,
चलो कर ले सुबह फिर से।।
( फिर से-1)
-विजय वर्मा
25-03-2016
फिर से
Reviewed by VIJAY KUMAR VERMA
on
10:05 PM
Rating:
अच्छी लगी ग़ज़ल. बहुत बढ़िया लिखा है आपने.
ReplyDeleteThanks Nihar ranjan g
Deleteबहुत खूब ... सुलह कर लेना ही अच्छा ... अच्छी पंक्तियाँ हैं ...
ReplyDeleteThanks Digamber Nasea g
Deleteसुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार!
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...